दशहरे का दिन है, रामलीलाएं जारी हैं और कहानी-घटनाक्रम अपने अंजाम पर पहुंचने ही वाला है. श्रीराम, रावण का वध करेंगे और एक बार फिर बुराई का प्रतीक रावण धू-धू कर जल उठेगा. इसी के साथ ये उत्सव खत्म हो जाएगा. पूरी रामकथा, श्रीराम की मर्यादा, श्रीराम की नीति की बात करती है, लेकिन इसी कहानी में एक महापुरुष ऐसा भी है, जिसके चरित्र पर विस्तार से बात नहीं होती है. वह हैं सीता के पिता, मिथिला के महाराज, राजा जनक.
रामकथा सुनते-सुनाते अयोध्या के वैभव और लंका के विलास की बातें खूब रिझाती हैं, लेकिन जीवन की असल सीख तो देती है मिथिला नगरी और मिथिला नगरी के राजा जनक. एक ऐसा राजा, जो इतना प्रजा पालक है कि प्रजा खुद भी उसका असली नाम भूल गई है. जिस तरह रघुकुल की रीति सदा चली आ रही थी, वैसे ही मिथिला में भी प्रजा पालन की ऐसी प्रथा पीढ़ियों से चली आ रही थी कि पीढ़ी दर पीढ़ी उसके राजाओं के असली नाम का वर्णन बहुत कठिनता से खोजने पर ही मिलेगा. प्रजा ने अपने राजा को पिता के रूप में स्वीकारा और उन्हें जनक कहा, इसके बाद से मिथिला का हर राजा जनक कहलाने लगा.
राजा जनक की पहले की पीढ़ी के हर राजाओं की कथाएं महानता का उच्च शिखर हैं. इसकी शुरुआत होती है महाराज निमी से. महाराज निमी कौन थे? वह मिथिला प्रदेश के पहले राजा थे. एक बार निमि महाराज के समय में मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा. इससे जनता त्रस्त हो गई. ब्रह्मर्षियों ने वाजपेय यज्ञ का सुझाव दिया. महाराज निमि अपने कुलगुरु वशिष्ठ के पास उन्हें यज्ञ का पुरोहित बनाने की इच्छा से गए, लेकिन इससे पहले इंद्र उन्हें अपने राजसूय धर्म यज्ञ के लिए पुरोहित बना चुके थे.
वशिष्ठ मुनि ने कहा कि मैं इंद्र का आमंत्रण स्वीकार कर चुका हूं इसलिए वहां यज्ञ कराकर तुम्हारा भी यज्ञ करा दूंगा, तुम सामग्री आदि तैयार रखो. अब वशिष्ठ मुनि इंद्र का यज्ञ कराने गए तो वहां कई वर्ष लग गए, ऐसे में निमि महाराज ने न्याय संहिता के रचयिता गौतम ऋषि को अपना कुलगुरु बनाया और उनसे यज्ञ कराने लगे. इधर, इंद्र का यज्ञ पूरा करके वशिष्ठ जब मिथिला पहुंचे तो देखा कि यज्ञ शुरू हो गया है. क्रोध में उन्होंने निमि को प्राणहीन हो जाने का श्राप दे दिया. अब चूंकि इतना बड़ा यज्ञ खंडित नहीं किया जा सकता था इसलिए ऋषि गौतम और ऋत्विज मुनियों ने मंत्र शक्ति से निमि के प्राण को निकलने नहीं दिया, इस तरह वह जीवित नहीं रहे, लेकिन मृतक भी नहीं हुए. उनका शरीर सुरक्षित रहा और आत्मा को मंत्रों से शरीर की परिधि में बांध दिया गया.
महाराज निमि ने इसी अवस्था में अपने भाई देवरात की सहायता से यज्ञ की आहुतियां दीं और सभी देवताओं की स्तुति की. वाजपेय यज्ञ के सिद्ध होने पर मां अम्बा को प्रकट होना होता है. माता प्रकट हुईं और उनके प्रकट होते ही वर्षा होने से अकाल मिट गया. तब उन्होंने प्रसन्न होकर निमि से वर मांगने को कहा. सबने सोचा निमि शरीर वापस मांगेंगे, लेकिन निमि ने कहा कि मैं इतने दिनों से न जीवित हूं न मृत, इसलिए शरीर का मोह अब नहीं रहा. आप मुझे इतना वर दीजिए कि हमेशा अपनी प्रजा के दुख देख सकूं और उन्हें दूर करने का उपाय कर सकूं.
देवी अम्बा ने उनकी इच्छा पूरी करते हुए वरदान दिया कि आज से सभी की पलकों में आपका निवास होगा. आपकी ही शक्ति से मनुष्य पलकें झपका सकेगा. देवता इससे मुक्त रहेंगे और ऐसा नहीं कर पाएंगे, इसलिए देवताओं को अनिमेष कहा जाएगा. अनिमेष, यानी जिसकी पलकें न हों. इस तरह सभी मनुष्यों की पलकों में महाराज निमि का वास हो गया.
निमी महाराज का कोई पुत्र नहीं था, तब ऋषियों ने उनके शरीर को मथ कर एक नए पुरुष को उत्पन्न किया. चूंकि उनका जन्म दूसरी देह से हुआ था इसलिए वह उत्पन्न पुरुष विदेह कहलाया और इसीलिए इस कुल का हर राजा विदेहराज और विदेह जनक भी कहलाने लगा. मथने से उत्पन्न होने के कारण उस राजा का नाम मिथि पड़ा और उन्हीं के नाम पर मिथिला राजधानी की स्थापना हुई.
इन्हीं मिथि के पुत्र हुए जनक, जिन्होंने प्रजा का पालन अपनी संतान की तरह किया और तबसे प्रजा ने मिथिला के हर राजा को जनक कहना शुरू कर दिया. इसके बाद अगले राजा बने महारोमा, जिन्हें जनक रोमा कहा गया और उनके पुत्र स्वर्णरोमा ने भी अपने कुल की मर्यादा का पूरा ध्यान रखा. उनके बाद महाराज हर्षरोमा ने मिथिला की परंपरा को बनाए रखा और उनके दो पुत्र हुए सीरध्वज और कुशध्वज. यही सीरध्वज, विदेहराज सीरध्वज जनक कहलाए. इन्हें ही सीता और उर्मिला के पिता होने का पुण्य प्राप्त हुआ. मांडवी और श्रुतकीर्ति उनके छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियां थीं.
जनक को महान इसलिए भी माना जाना चाहिए क्योंकि वह एक ऐसी कहानी के किरदार हैं, जहां बेटों के जन्म के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया गया था, लेकिन चार-चार पुत्रियों का पिता विदेहराज जनक अपनी पुत्रियों को ही सबकुछ मानता है. वह न तो अपने लिए किसी पुत्र की कामना करते दिखते है और न ही अपनी बेटियों के लिए किसी भाई की ही इच्छा उन्होंने कभी की. जनक को यह भी चिंता नहीं रही कि उनके बाद मिथिला राज्य का क्या होगा. वह पूरी तरह वर्तमान में जीते रहे और राजा होते हुए भी संतों और तपस्वियों जैसी सोच रखते रहे. उन्होंने अपनी चारों पुत्रियों की शिक्षा में कोई कमी नहीं छोड़ी.
जनक का राज दरबार पुराणों में वर्णित अकेला ऐसा दरबार है, जहां सिर्फ महान ऋषियों का ही निवास नहीं है, बल्कि कई ज्ञानवान और तपस्वी विदुषी महिलाओं का भी स्थान है. देवी गार्गी, देवी अपाला, देवी घोषा जैसी विदुषी संत परंपराओं को जनकराज ने पूरा सम्मान दिया था. बल्कि देवी गार्गी तो सीता के लिए गुरु मां की तरह थीं, जिनके साथ रहकर उन्होंने बचपन में ही वेद अध्ययन किया था. इसमें एक कथा आती है कि अपनी पुत्रियों की शिक्षा के लिए जनक राज ने ऋषि गौतम को बुलावा भेजा था.
ऋषि गौतम आए, सीता ने उनका सम्मान तो किया, लेकिन उन्हें गुरु रूप में स्वीकार नहीं किया. असल में ऋषि गौतम उस समय न्याय संहिता की रचना के कारण चर्चित थे, लेकिन वह अपनी ही पत्नी अहिल्या के साथ न्याय नहीं कर पाए. इंद्र के छल में उन्होंने अहिल्या को भी इसका दोषी मानकर उसे पत्थर हो जाने का श्राप दे दिया था. सीता ने इसी पर आपत्ति जताई थी. तब ऋषि गौतम को भी अपनी भूल का अहसास हुआ और वह वन में तपस्या के लिए चले गए, लेकिन इसी बीच वह अपने पुत्र शतानंद को जनक जी को ही सौंप गए, जिन्होंने वहीं मिथिला में रहकर विदेहराज जनक से ब्रह्म ज्ञान अर्जित किया और मिथिला के गुरुकुलों में रहकर वेदपाठ किया.
मिथिला में लोकतंत्र इतना हावी था कि सैन्य व्यवस्था को नगर के बीच अभ्यास करने की अनुमति नहीं थी. इसलिए छोटे भाई कुश ध्वज जो कि राज्य के सेनापति भी थी, वह सेना लेकर मिथिला के दूसरे छोर पर रहते थे. राजा जनक का मानना था कि सेना सिर्फ प्रजा के बीच भय पैदा करती है, यदि राज्य प्रजा पालक है और प्रजा सभ्य है. समाज में सभ्यता की जगह है तो सेना की कोई जरूरत नहीं है. वाल्मीकि रामायण में महर्षि वाल्मीकि, महाराजा जनक के महान विचारों का वर्णन ऐसे ही कई उदाहरणों से करते हैं.
राजा जनक के दरबार में एक विद्वान ऐसा भी है, जिसने अपने पिता के हत्यारे को क्षमादान दिया और ‘क्षमा ही धर्म का मूल’ है, इस सूत्र वाक्य को सार्थक कर दिखाया. वह विद्वान ऋषि अष्टावक्र थे. उनके पिता ऋषि काहोद को जनक राज के विद्वान महापंडित वंदी ने शास्त्रार्थ में हराया था. शास्त्रार्थ की शर्त थी कि हारने वाला जल समाधि ले लेगा. हालांकि राजा जनक ने निर्णय लेते हुए कहा कि, जल समाधि की कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन ऋषि काहोद को इतनी ग्लानि हुई कि उन्होंने गंगा में कूदकर प्राण त्याग दिए. उधर, राजा जनक के दरबार में महापंडित वंदी को अपने ज्ञान का अहंकार हो गया.
अष्टावक्र जब युवा हुए तो वह राजा जनक के दरबार में पहुंचे और उन्होंने शास्त्रार्थ की चेतावनी दी. जब उन्होंने सभा में प्रवेश किया तो सभी उनके आठ अंगों से टेढ़े शरीर को देखकर उपहास करने लगे, तब अष्टावक्र ने आत्मा के स्वरूप का वर्णन करके सभी को चुप करा दिया. इसके बाद उन्होंने महापंडित वंदी को भी हराया. शर्त के अनुसार वंदी भी जलसमाधि लेने जा रहे थे, तब अष्टावक्र ने उन्हें कर्म के ज्ञान का दर्शन समझाया. उनके इसी ज्ञान को ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से जाना जाता है. इस तरह जनक का दरबार वह दरबार बना, जहां क्षमा धर्म को स्थान मिला.
इसी तरह जनक के दरबार में एक और ज्ञानी ऋषि थे याज्ञव्ल्क्य. एक बार याज्ञव्ल्क्य ऋषि ने अपने एक शिष्य को विद्यादान के बाद उसे अंतिम सूत्र के तौर पर जीवन में कर्म के सिद्धांत का महत्व बताया. इसी क्रम में उन्होंने राजा जनक की प्रशंसा करते हुए कहा कि महाराज जनक से बड़ा कर्मयोगी इस संसार में कोई नहीं है. वह राजा होते हुए भी ऋषि हैं, इसीलिए राजर्षि हैं. शिष्य युवा था और अभिमानी भी. उसने याज्ञव्ल्क्य की बात काटते हुए कहा, एक राजा, ऋषि कैसे हो सकता है?
याज्ञव्ल्क्य यह प्रश्न सुनकर चुप रह गए और समझ गए कि इसकी शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई है. तब एक दिन उन्होंने उस शिष्य को कोई कारण बता कर मिथिला नगरी भेजा. ऋषि याज्ञवल्क्य के शिष्य आए हैं, यह सुनकर राजा जनक ने उनकी बहुत आवभगत की. शिष्य भी अभिमान में था, इसलिए पूरे अधिकार से सेवा करा भी रहा था. फिर राजन ने उस युवक को भोजन के लिए आमंत्रित किया. एक कक्ष में बड़ी सी थाल में पकवान परोसे और पीढ़े पर बैठाकर शिष्य को भोजन करने का आग्रह किया गया. थोड़ी देर में शिष्य को महसूस हुआ कि उसके सिर पर कोई नुकीली वस्तु चुभ रही है, वह देखता क्या है कि बहुत पतली डोर से बंधी एक धारदार तलवार सीधे उसके सिर के ऊपर है. युवक सकपका जाता है, अब अगर वह वहां से जरा भी हिले तो तलवार इतनी तेज है कि उसका अंग-भंग हो जाए. किसी तरह उसने भोजन किया, और फिर सेवक की सहायता से उठकर भागा.
अब रात हुई. एक बड़े शयन कक्ष में उनका बिस्तर लगाया गया. दिनभर के थके युवक को पलभर में नींद आ गए, लेकिन थोड़ी देर में ही उसे अहसास हुआ कि कुछ उस पर रेंग रहा है. उसकी आंख खुल गई, सामने देखता क्या है कि एक विषधर सांप फन फैलाए खड़ा है. वह डर के मारे भागने को हुआ तो जमीन पर और भी कई सर्प रेंग रहे थे. शिष्य ने किसी तरह पलंग पर बैठे बैठे ही रात गुजार दी.
अगली सुबह वह दरबार पहुंचा और राजा से उस काम की चर्चा करनी चाही, जिसके लिए आया था, लेकिन महाराज जनक ने पूछा कि क्या आप यहां सुख से रहे? क्षमा कीजिएगा अगर गुरु याज्ञवल्क्य के शिष्य को कोई कष्ट हुआ हो तो. यह सुनकर शिष्य झल्ला पड़ा और बोला, कष्ट?
आपके सेवकों ने कष्ट के लिए बाकी ही क्या छोड़ा था. खाने बैठा तो सिर पर तलवार लटका दी, सोने गया तो सर्प छोड़ दिए. आप तो शीघ्र मुझे विदा कीजिए… बस. तब तक दूसरे कक्ष से याज्ञवल्क्य ऋषि भी निकल आए. उन्हें वहां देखकर शिष्य सकपका गया.
ऋषि ने कहा, जो तुमने एक दिन भोगा, यही महाराज जनक का जीवन है. वह जब एक भी निवाला खाने बैठते हैं तो कर्म और प्रजापालन की तलवार उन पर हमेशा लटकती रहती है. वह यह सोचते हैं कि अगर मैंने गलती से भी प्रजा में किसी एक के भी भूखे रहने पर भोजन किया है तो यह भोजन निरर्थक हो जाए.
जब वह शयन के लिए जाते हैं तो काल सर्प उन्हें इसी तरह डराता है कि, समय तो बीतता जा रहा है और तुम पुण्य कब अर्जित करोगे. महर्षि याज्ञवल्क्य की यही बात लोकतंत्र की खूबसूरती है और उसकी महानता है, महान हैं राजा जनक जो ऐसी नीतियों और नियमों के साथ जीवन जीते रहे. यदि कोई राज्य विकसित है. सभ्य है, सुसंस्कृत है तो उसे मिथिला जैसा ही होना चाहिए. वह विकास का सबसे उच्च मानक है, सही अर्थों में वहीं लोकतंत्र है, यही ‘रामराज’ है.
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